जज्ध्यात्म का अर्थ है स्वयं को अर्थात् जल , वायु , अग्नि, पृथ्वी,आकाश के आवरण से ढकी मानवीय चेतना और उसके मूल स्वभाव ( ज्ञान , पवित्रता , शान्ति , प्रेम , सुख , आनन्द और शक्ति ) को जानना । इस मूल चेतना के ज्ञान को ही तीसरा नेत्र खुलना कहा जाता है । मान लीजिए , एक गाँव में ऐसे लोग हैं जिनकी आँखों पर पट्टी बंधी है ।
जीवनोपयोगी काम तो वे करते हैं परन्तु धीरे - धीरे करते हैं , भय के साथ करते हैं , कई गलतियाँ भी कर देते हैं , गलतियों के लिए पश्चाताप भी करते हैं , दूसरों को दोषी भी ठहराते हैं और भाग्य को भी कोसते हैं । उनमें से कोई एक समझदार व्यक्ति अपनी पट्टी कहीं से उतरवाकर आता है और उन सभी को बताता है कि देखो , पट्टी उतरवाने से कार्य जल्दी होते हैं , सही होते हैं , तुम भी उतरवा लो ।
यह सुनकर वे पट्टीधारी कहते हैं कि पट्टी उतरवाने की ना तो हमें आवश्यकता महसूस हो रही है और ना ही इस काम के लिए हमारे पास समय है । वह व्यक्ति उन्हें समझाता है कि काम धीरे करने में तुम्हारा जो समय व्यर्थ जाता है वह पट्टी उतरवाने से बचेगा , काम जल्दी और अच्छे होंगे परन्तु उन्हें यह बात समझ में नहीं आती और वे जैसे हैं , वैसे ही चलते रहते हैं ।
आज के संसार में भी अधिकतम लोग देह के अभिमान की तथा देह से जुड़ी गलत मान्यताओं की पट्टी बांधकर जी रहे हैं । उन्हें पट्टी उतरवाने की बिल्कुल जरूरत महसूस नहीं हो रही । वे समस्याओं से जूझते हुए और उनके वशीभूत होते हुए जीवन जीने को मजबूर हैं परन्तु पट्टी उतरवाने को तैयार नहीं हैं । पट्टी उतरवाना अर्थात् अपने विशुद्ध आत्मिक रूप में टिकना जिसे ही अध्यात्म कहा जाता है ।
भगवे वस्त्र पहन लेना बाह्य आचरण है परन्तु भगवा वस्त्र जिस त्याग - वैराग्य का प्रतीक है , उस त्याग और वैराग्य को प्रतिपल मन में धारण किए रखना आन्तरिक आचरण है । खड़ाऊ पहनना बाह्य आचरण है परन्तु इच्छा आसक्ति - पसन्द - चाहना आदि से मन को उखाड़कर ईश्वर में रोपित कर देना आन्तरिक आचरण है ।
गले में माला डाल लेना बाह्य आचरण है परन्तु ईश्वरीय गुणों की माला द्वारा अपने चरित्र को सजा लेना , उसके गुणों से मालामाल रहना और दूसरों को भी यह ईश्वरीय माल प्रदान करना आन्तरिक आचरण है ।
पूजा - पाठ करना बाह्य आचरण है परन्तु चेतना , परमचेतना में समाई ही रहे , कर्म करते भी उसके ज्ञान , गुण , शक्तियों का रसास्वादन करती ही रहे , यह आन्तरिक आचरण है । कमल फूल दूसरों को लगाना बाह्य आचरण है परन्तु संसार की बुराइयों रूपी कीचड़ से स्वयं को न्यारा बनाकर , दूसरों को भी ऐसा बनने की प्रेरणा देना आन्तरिक आचरण है ।
अत : बाह्य आचरण को समेटकर अन्दर आत्मा की ओर मुड़ना ही अध्यात्म है । इससे परमात्मा से ध्यान स्वत : लग जाएगा क्योंकि कहा जाता है , आत्मचेतना ही परमात्म - चेतना की ओर अग्रसर करती है ( Soul conscious leads to God conscious )
इसके द्वारा हम अपने अंदर झाँकना सीखते हैं , इससे जीवन के जटिल सवालों के जवाब मिल जाते हैं और जीवन को सही तरीके से देखना और जीना आ जाता है । इसकी भेंट में ज्योतिष विद्या , आने वाले कुछ पलों की थोड़ी - सी आहट जरूर देती है परंतु परिस्थितियों को परिवर्तन करने के बाहरी इलाज बताती है ।
इन बाहरी इलाजों के सहयोग से हम स्वयं पर थोड़ी मेहनत करते हैं परन्तु व्यक्ति या समस्याओं को बदलने का प्रयास ज्यादा करते हैं । इस प्रयास में कभी निराशा का और असफलता का भी अनुभव होता है । मान लीजिए , हम अपनी शारीरिक जाँच रिपोर्ट लेकर एक डॉक्टर के पास गए । उसने रिपोर्ट देखी और साथ ही हमसे हमारी जीवनशैली भी पूछी । दोनों की जानकारी पा लेने के बाद उस अनुभवी डॉक्टर ने कहा कि आने वाले समय में आपको हृदयरोग होने की सम्भावना है ।
डॉक्टर की बात सुनकर हमारे मन में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं । एक , हम भयभीत हो जाएँ , अपने परिवार के पूर्वजों को याद करके कि मेरी माँ को भी , नानी को भी हृदयरोग था तो मुझे भी होना ही था । फिर हमें अपनी जीवन शैली स्मृति में आई कि हमें तनाव भी बहुत है , प्रात : कालीन सैर का भी वक्त नहीं मिलता है , भोजन भी अनुपयुक्त है ।
इस प्रकार की चिन्ता हमें जल्दी ही इस रोग के घेरे में ला सकती है । तब हमारे मुख से निकलेगा , डॉक्टर ने जो कहा था , सत्य हो गया । दूसरी प्रतिक्रिया यह हो सकती है कि डॉक्टर द्वारा चेतावनी पाकर हम सावधान हो जाएँ । जल्दबाजी , तनाव , फास्टफूड आदि का परित्याग कर प्रात : कालीन सैर प्रारम्भ कर दें । खुश रहने की आदत डाल लें ।
राजयोग और शारीरिक योग करके तन को दुरुस्त और मन के विचारों में एकाग्रता , सात्विकता , पवित्रता ले आएँ । इससे हमारा स्वास्थ्य सुधरता जाएगा और हम हृदयरोग से बच सकेंगे ।
वह कहता है , हो सकता है , आपके धन्धे में नुकसान हो , आपकी सेहत पर बुरा प्रभाव पड़े , कोई आपसे पुरानी दुश्मनी निकालने का प्रयास करे आदि - आदि । यह केवल सम्भावना बताई गई है , सत्य नहीं ।
हम उन ज्योतिषी के शुक्रगुजार हैं परन्तु इस सम्भावना को निरस्त करना या सत्य बनाना हमारे हाथ में है , कैसे ? जैसे हृदयरोग की बात सुनने के बाद , दूसरी प्रतिक्रिया के रूप में हमने उसे एक चेतावनी के रूप में लिया , उसे स्वीकारा नहीं वरन् सावधान हो गए । अपनी जीवनशैली को सुधार कर संभावना को निरस्त कर दिया ।
इसी प्रकार , यहाँ भी हम अपने धंधे के प्रति , सेहत के प्रति अधिक सचेत होकर और यदि कोई पुराना हिसाब - किताब है तो उसे शुभभावना , शुभकामना द्वारा सैटल कर , ज्योतिषी द्वारा बताई गई सम्भावना को निरस्त कर सकते हैं । परन्तु , अधिकतर मामलों में होता क्या है कि हम सम्भावना को ही सत्य मान लेते हैं ।
हमें निश्चय हो जाता है कि ऐसे तो होगा ही क्योंकि उस क्षेत्र के जानकार ने कहा है । फिर हमें वो लोग याद आने लगते हैं जिनके प्रति उसकी भविष्यवाणियाँ सत्य सिद्ध हुई हैं और यद् ध्यायति तद् भवति के अनुसार वह बात सिद्ध हो जाती है ।
वह अपने देश वापस लौटा , दिन - रात मृत्यु की उस घड़ी के बारे में ही सोचता रहा और जैसे - जैसे समय नजदीक आता गया , अपने कारोबार को समेटता गया । जैसे ही वह सम्भावित समय आया , उसने शरीर छोड़ दिया ।
यदि उसने ना सुना होता , ना सोचा होता तो यह न हुआ होता इसलिए कहा जाता है , ज्योतिषी केवल सम्भावना व्यक्त करते हैं , उस सम्भावना को स्वीकारना या नकारना हमारे हाथ में है । परन्तु होता यह है कि ज्योतिषी के कहते ही वह बात हमारे अवचेतन मन में समा जाती है ।
अवचेतन मन उस पर काम करना शुरू कर देता है । हमारी सोच प्रकृति में जाती है । प्रकृति में मौजूद उसी प्रकार के विचार हमारे इन विचारों से मिल जाते हैं । दोनों का मेल होने के बाद सारी कायनात उस संकल्प को साकार करने में लग जाती है । इसलिए कहा जाता है कि जो बात जितनी घनिष्ठता से बार - बार सोची जाती है , वो हो जाती है ।
अगर हमें इस बात की जानकारी न रहती या हम इस जानकारी में विश्वास न करते तो अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर अपना कारोबार करते परन्तु यह जानकारी पा लेने के बाद तो मन में विचार आने लगे कि मेहनत करने से क्या फायदा , सफलता तो होनी नहीं है । इस प्रकार , इस जानकारी ने कार्य के प्रति हमारे उमंग को खत्म कर दिया ।
उमंग नहीं तो जीवन में कुछ भी नहीं । जहाँ उमंग है वहाँ धूल भी धन हो जाता है और बिना उमंग , धन भी धूल हो जाता है । अपनी समस्या के समाधान के लिए हमें कई बार कोई खास रंग , पत्थर या रत्न आदि पहनने को कहा जाता है । इनसे कोई हमारे ग्रह - नक्षत्रों की चाल नहीं बदल जाती परन्तु इनके सहयोग से हम अपनी सोच अवश्य बदल लेते हैं ।
जब हमें बताया जाता है कि अगले छह मास हम पर भारी हैं तो हमारी हिम्मत टूट जाती है । फिर हमें बताया जाता है कि अमुक पत्थर या रंग धारण करने से बाधा टल जाएगी । इस प्रकार , अमुक वस्तु को धारण कर हमारा मन आशावादी हो उठता है कि भले ना कितनी भी बाधाएँ आएँ , मुझे सफल होना ही है क्योंकि त मेरे पास सफल होने का साधन है ।
मेरे पास अमुक नग है , मोती है , इससे ग्रह - नक्षत्रों की दशा जरूर टलेगी । खास रंग , पत्थर या रत्न आदि पहनने से मन को सकारात्मक होने का सहयोग मिलता है ।ज्योतिष विद्या के सम्बन्ध में ज्ञानामृत के पूर्व मुख्य सम्पादक भ्राता जगदीश जी ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि ज्योतिष और हस्तरेखा के कुचक्र में पड़े न रहने वाले व्यक्ति वहमी - से बन जाते हैं और अपने मनोबल को क्षीण कर बैठते हैं । भविष्य के भय से वे पहले ही चिन्तित और भयभीत हुए रहते हैं ।
कुछ देर के लिए मान भी लें कि प्राचीन काल में ऐसे मेधावी भविष्य - वक्ता होते थे जो ठीक - ठीक ही भविष्य - वर्णन कर सकते थे , तो भी यह तो सर्वमान्य है कि वे भी भावी को टाल नहीं सकते थे । यदि वे भावी को भी टाल सकते होते तब तो विश्व के वृत्तान्त ही कुछ और होते और द्वापरयुग समाप्त होकर कलियुग न आता ।
प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई आख्यान मिलते हैं जिनमें यह उल्लेख है कि अमुक ऋषि ने अमुक वृत्तान्त को होने से रोक लिया और उसकी बजाय फलाँ वृत्तान्त हुआ । इससे लगता तो ऐसा ही है कि उन्होंने ' होनी ' को ' अनहोनी ' कर दिया और ' अनहोनी ' को ' होनी ' में बदल दिया ।
परन्तु, इसकी बजाय ऐसा क्यों न माना जाये कि ' होनी ' या ‘ भावी ' वास्तव में वही थी जो अन्त में हुई और बीच में उस ऋषि या मुनि ने जो यन्त्र , तन्त्र का या यज्ञ , पाठ , पूजा का प्रयोग किया , उसके बाद होना वही था जो अब हुआ ।
अतः: वे तो स्वयं ही ' होनी ' अथवा ' भावी ' के अधीन होकर कर्म कर रहे थे । विश्व के सभी वृत्तान्त एक - दूसरे से ऐसे जुड़े हुए हैं कि एक को बदलने के लिए सभी को बदलना जरूरी है । सभी वृत्तान्तों को बदलना तो सभी के कर्मों के लेखे से जुड़ा हुआ है और उनमें हस्तक्षेप करना तो मनुष्य के अधिकार - क्षेत्र और उसकी शक्ति से बाहर का कार्य है ।
इस सत्यता पर आधारित यह सत्यता भी सिद्ध है कि विश्व के वृतान्त पूर्व - निश्चित हैं । यदि वे पूर्व - निश्चित न हों तब न तो भाग्य ' की चर्चा हो सकेगी , न भविष्य - कथन ही की बात हो सकेगी । इस विषय में भारत के प्रसिद्ध खगोल शास्त्री और ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर के बारे में प्रसिद्ध है कि कैसे उसने अपनी पुत्री लीलावती के विवाह का जो मुहूर्त निकाला था , उसमें विघ्न पड़ा जिसके विषय में वाराहमिहिर ने सोचा भी नहीं था ।
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आन्तरिक और बाह्य आचरण
माथे पर चंदन लगा लेना , भगवे वस्त्र धारण कर लेना , खड़ाऊ पहन लेना , गले में माला डाल लेना , सुबह उठकर पूजा - पाठ कर लेना , कमल का फूल पानी में डुबोकर सबको लगा देना – ये सब बाह्य आचरण हैं । अध्यात्म आन्तरिक आचरण है । अन्दर में विराजमान आत्मा की स्मृति में टिककर उसके मूल गुणों की चंदनमय खुशबू संसार में फैलाना आन्तरिक आचरण है ।भगवे वस्त्र पहन लेना बाह्य आचरण है परन्तु भगवा वस्त्र जिस त्याग - वैराग्य का प्रतीक है , उस त्याग और वैराग्य को प्रतिपल मन में धारण किए रखना आन्तरिक आचरण है । खड़ाऊ पहनना बाह्य आचरण है परन्तु इच्छा आसक्ति - पसन्द - चाहना आदि से मन को उखाड़कर ईश्वर में रोपित कर देना आन्तरिक आचरण है ।
गले में माला डाल लेना बाह्य आचरण है परन्तु ईश्वरीय गुणों की माला द्वारा अपने चरित्र को सजा लेना , उसके गुणों से मालामाल रहना और दूसरों को भी यह ईश्वरीय माल प्रदान करना आन्तरिक आचरण है ।
पूजा - पाठ करना बाह्य आचरण है परन्तु चेतना , परमचेतना में समाई ही रहे , कर्म करते भी उसके ज्ञान , गुण , शक्तियों का रसास्वादन करती ही रहे , यह आन्तरिक आचरण है । कमल फूल दूसरों को लगाना बाह्य आचरण है परन्तु संसार की बुराइयों रूपी कीचड़ से स्वयं को न्यारा बनाकर , दूसरों को भी ऐसा बनने की प्रेरणा देना आन्तरिक आचरण है ।
सभी गुणों का खजाना आत्मा में है
यह शरीर एक मकान है तो आत्मा मकान के भीतर रखी छोटी अटैची ( Briefcase ) की तरह है । सारा जेवर इस अटैची में है अर्थात् सभी गुणों का खजाना आत्मा में भरा है । हम मकान को सजाने की चिन्ता में , मेहनत में , पुरुषार्थ में लगे रहेंगे तो अटैची में पड़े जेवरों का इस्तेमाल कब करेंगे , कैसे करेंगे ।अत : बाह्य आचरण को समेटकर अन्दर आत्मा की ओर मुड़ना ही अध्यात्म है । इससे परमात्मा से ध्यान स्वत : लग जाएगा क्योंकि कहा जाता है , आत्मचेतना ही परमात्म - चेतना की ओर अग्रसर करती है ( Soul conscious leads to God conscious )
अध्यात्म और ज्योतिष में अन्तर
आध्यात्मिकता और ज्योतिष में फर्क इतना ही है कि आध्यात्मिकता हमें खुद को बदलने की , आत्म परिवर्तन करने की प्रेरणा देती है इसलिए इसका नारा है , ' खुद को बदलो , जग बदलेगा ' , ' स्वपरिवर्तन से होगा विश्व परिवर्तन ' ।इसके द्वारा हम अपने अंदर झाँकना सीखते हैं , इससे जीवन के जटिल सवालों के जवाब मिल जाते हैं और जीवन को सही तरीके से देखना और जीना आ जाता है । इसकी भेंट में ज्योतिष विद्या , आने वाले कुछ पलों की थोड़ी - सी आहट जरूर देती है परंतु परिस्थितियों को परिवर्तन करने के बाहरी इलाज बताती है ।
इन बाहरी इलाजों के सहयोग से हम स्वयं पर थोड़ी मेहनत करते हैं परन्तु व्यक्ति या समस्याओं को बदलने का प्रयास ज्यादा करते हैं । इस प्रयास में कभी निराशा का और असफलता का भी अनुभव होता है । मान लीजिए , हम अपनी शारीरिक जाँच रिपोर्ट लेकर एक डॉक्टर के पास गए । उसने रिपोर्ट देखी और साथ ही हमसे हमारी जीवनशैली भी पूछी । दोनों की जानकारी पा लेने के बाद उस अनुभवी डॉक्टर ने कहा कि आने वाले समय में आपको हृदयरोग होने की सम्भावना है ।
डॉक्टर की बात सुनकर हमारे मन में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं । एक , हम भयभीत हो जाएँ , अपने परिवार के पूर्वजों को याद करके कि मेरी माँ को भी , नानी को भी हृदयरोग था तो मुझे भी होना ही था । फिर हमें अपनी जीवन शैली स्मृति में आई कि हमें तनाव भी बहुत है , प्रात : कालीन सैर का भी वक्त नहीं मिलता है , भोजन भी अनुपयुक्त है ।
इस प्रकार की चिन्ता हमें जल्दी ही इस रोग के घेरे में ला सकती है । तब हमारे मुख से निकलेगा , डॉक्टर ने जो कहा था , सत्य हो गया । दूसरी प्रतिक्रिया यह हो सकती है कि डॉक्टर द्वारा चेतावनी पाकर हम सावधान हो जाएँ । जल्दबाजी , तनाव , फास्टफूड आदि का परित्याग कर प्रात : कालीन सैर प्रारम्भ कर दें । खुश रहने की आदत डाल लें ।
राजयोग और शारीरिक योग करके तन को दुरुस्त और मन के विचारों में एकाग्रता , सात्विकता , पवित्रता ले आएँ । इससे हमारा स्वास्थ्य सुधरता जाएगा और हम हृदयरोग से बच सकेंगे ।
सम्भावना को निरस्त करना या सत्य बनाना हमारे हाथ में
जैसे डॉक्टर ने वर्तमान शारीरिक स्थिति और दिनचर्या को देखकर , भविष्य में शरीर को क्या हो सकता है , उसकी सम्भावना जताई , उसी प्रकार , एक ज्योतिषी भी ग्रहों , नक्षत्रों आदि की स्थिति के अनुसार आने वाले 6 मास या एक साल में क्या घटने वाला है , उसकी सम्भावना बताता है ।वह कहता है , हो सकता है , आपके धन्धे में नुकसान हो , आपकी सेहत पर बुरा प्रभाव पड़े , कोई आपसे पुरानी दुश्मनी निकालने का प्रयास करे आदि - आदि । यह केवल सम्भावना बताई गई है , सत्य नहीं ।
हम उन ज्योतिषी के शुक्रगुजार हैं परन्तु इस सम्भावना को निरस्त करना या सत्य बनाना हमारे हाथ में है , कैसे ? जैसे हृदयरोग की बात सुनने के बाद , दूसरी प्रतिक्रिया के रूप में हमने उसे एक चेतावनी के रूप में लिया , उसे स्वीकारा नहीं वरन् सावधान हो गए । अपनी जीवनशैली को सुधार कर संभावना को निरस्त कर दिया ।
इसी प्रकार , यहाँ भी हम अपने धंधे के प्रति , सेहत के प्रति अधिक सचेत होकर और यदि कोई पुराना हिसाब - किताब है तो उसे शुभभावना , शुभकामना द्वारा सैटल कर , ज्योतिषी द्वारा बताई गई सम्भावना को निरस्त कर सकते हैं । परन्तु , अधिकतर मामलों में होता क्या है कि हम सम्भावना को ही सत्य मान लेते हैं ।
हमें निश्चय हो जाता है कि ऐसे तो होगा ही क्योंकि उस क्षेत्र के जानकार ने कहा है । फिर हमें वो लोग याद आने लगते हैं जिनके प्रति उसकी भविष्यवाणियाँ सत्य सिद्ध हुई हैं और यद् ध्यायति तद् भवति के अनुसार वह बात सिद्ध हो जाती है ।
जो बात बार - बार सोची जाती है , वह हो जाती है
बताते हैं कि एक बार , एक विदेशी भारत में आया , एक ज्योतिषी से मिला और पूछा , मेरी मृत्यु कब होगी ? ज्योतिषी ने ग्रह , नक्षत्र आदि देखकर बता दिया कि तीन मास बाद ही आपकी मृत्यु होने की सम्भावना है । उसने उसको सच मान लिया ।वह अपने देश वापस लौटा , दिन - रात मृत्यु की उस घड़ी के बारे में ही सोचता रहा और जैसे - जैसे समय नजदीक आता गया , अपने कारोबार को समेटता गया । जैसे ही वह सम्भावित समय आया , उसने शरीर छोड़ दिया ।
यदि उसने ना सुना होता , ना सोचा होता तो यह न हुआ होता इसलिए कहा जाता है , ज्योतिषी केवल सम्भावना व्यक्त करते हैं , उस सम्भावना को स्वीकारना या नकारना हमारे हाथ में है । परन्तु होता यह है कि ज्योतिषी के कहते ही वह बात हमारे अवचेतन मन में समा जाती है ।
अवचेतन मन उस पर काम करना शुरू कर देता है । हमारी सोच प्रकृति में जाती है । प्रकृति में मौजूद उसी प्रकार के विचार हमारे इन विचारों से मिल जाते हैं । दोनों का मेल होने के बाद सारी कायनात उस संकल्प को साकार करने में लग जाती है । इसलिए कहा जाता है कि जो बात जितनी घनिष्ठता से बार - बार सोची जाती है , वो हो जाती है ।
भविष्य को न जानना ही अच्छा है
अतः भविष्य को पहले से ही जानने की मेहनत न की जाए तो अच्छा है । कई लोगों की धारणा होती है कि भविष्य को पहले से ही जान लेने से हमारे कई काम सरल हो जाएँगे , हम सावधान हो जायेंगे परन्तु कई बार उल्टा हो जाता है अर्थात् सरल होने के बजाए काम मुश्किल हो जाते हैं , कैसे ? जैसे मान लीजिए , किसी ज्योतिषी ने हमारा हाथ देखकर कहा कि अगले 6 मास आप पर भारी हैं , कोर्य की सफलता में अडचनें आएँगी आदि आदि ।अगर हमें इस बात की जानकारी न रहती या हम इस जानकारी में विश्वास न करते तो अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर अपना कारोबार करते परन्तु यह जानकारी पा लेने के बाद तो मन में विचार आने लगे कि मेहनत करने से क्या फायदा , सफलता तो होनी नहीं है । इस प्रकार , इस जानकारी ने कार्य के प्रति हमारे उमंग को खत्म कर दिया ।
उमंग नहीं तो जीवन में कुछ भी नहीं । जहाँ उमंग है वहाँ धूल भी धन हो जाता है और बिना उमंग , धन भी धूल हो जाता है । अपनी समस्या के समाधान के लिए हमें कई बार कोई खास रंग , पत्थर या रत्न आदि पहनने को कहा जाता है । इनसे कोई हमारे ग्रह - नक्षत्रों की चाल नहीं बदल जाती परन्तु इनके सहयोग से हम अपनी सोच अवश्य बदल लेते हैं ।
जब हमें बताया जाता है कि अगले छह मास हम पर भारी हैं तो हमारी हिम्मत टूट जाती है । फिर हमें बताया जाता है कि अमुक पत्थर या रंग धारण करने से बाधा टल जाएगी । इस प्रकार , अमुक वस्तु को धारण कर हमारा मन आशावादी हो उठता है कि भले ना कितनी भी बाधाएँ आएँ , मुझे सफल होना ही है क्योंकि त मेरे पास सफल होने का साधन है ।
मेरे पास अमुक नग है , मोती है , इससे ग्रह - नक्षत्रों की दशा जरूर टलेगी । खास रंग , पत्थर या रत्न आदि पहनने से मन को सकारात्मक होने का सहयोग मिलता है ।ज्योतिष विद्या के सम्बन्ध में ज्ञानामृत के पूर्व मुख्य सम्पादक भ्राता जगदीश जी ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि ज्योतिष और हस्तरेखा के कुचक्र में पड़े न रहने वाले व्यक्ति वहमी - से बन जाते हैं और अपने मनोबल को क्षीण कर बैठते हैं । भविष्य के भय से वे पहले ही चिन्तित और भयभीत हुए रहते हैं ।
कुछ देर के लिए मान भी लें कि प्राचीन काल में ऐसे मेधावी भविष्य - वक्ता होते थे जो ठीक - ठीक ही भविष्य - वर्णन कर सकते थे , तो भी यह तो सर्वमान्य है कि वे भी भावी को टाल नहीं सकते थे । यदि वे भावी को भी टाल सकते होते तब तो विश्व के वृत्तान्त ही कुछ और होते और द्वापरयुग समाप्त होकर कलियुग न आता ।
प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई आख्यान मिलते हैं जिनमें यह उल्लेख है कि अमुक ऋषि ने अमुक वृत्तान्त को होने से रोक लिया और उसकी बजाय फलाँ वृत्तान्त हुआ । इससे लगता तो ऐसा ही है कि उन्होंने ' होनी ' को ' अनहोनी ' कर दिया और ' अनहोनी ' को ' होनी ' में बदल दिया ।
परन्तु, इसकी बजाय ऐसा क्यों न माना जाये कि ' होनी ' या ‘ भावी ' वास्तव में वही थी जो अन्त में हुई और बीच में उस ऋषि या मुनि ने जो यन्त्र , तन्त्र का या यज्ञ , पाठ , पूजा का प्रयोग किया , उसके बाद होना वही था जो अब हुआ ।
अतः: वे तो स्वयं ही ' होनी ' अथवा ' भावी ' के अधीन होकर कर्म कर रहे थे । विश्व के सभी वृत्तान्त एक - दूसरे से ऐसे जुड़े हुए हैं कि एक को बदलने के लिए सभी को बदलना जरूरी है । सभी वृत्तान्तों को बदलना तो सभी के कर्मों के लेखे से जुड़ा हुआ है और उनमें हस्तक्षेप करना तो मनुष्य के अधिकार - क्षेत्र और उसकी शक्ति से बाहर का कार्य है ।
इस सत्यता पर आधारित यह सत्यता भी सिद्ध है कि विश्व के वृतान्त पूर्व - निश्चित हैं । यदि वे पूर्व - निश्चित न हों तब न तो भाग्य ' की चर्चा हो सकेगी , न भविष्य - कथन ही की बात हो सकेगी । इस विषय में भारत के प्रसिद्ध खगोल शास्त्री और ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर के बारे में प्रसिद्ध है कि कैसे उसने अपनी पुत्री लीलावती के विवाह का जो मुहूर्त निकाला था , उसमें विघ्न पड़ा जिसके विषय में वाराहमिहिर ने सोचा भी नहीं था ।
परमात्मा पिता ही परमज्योतिषाचार्य
परमपिता परमात्मा शिव , परमसत्य ज्योतिषाचार्य हैं , वे त्रिकालदर्शी और त्रिनेत्री हैं , कालचक्र के द्रष्टा तथा साक्षी हैं और जन्म - मरण से अतीत हैं । वे भाग्य रेखा अथवा तकदीर की लकीर लिखने वाले हैं इसलिए सभी चिंताओं को भगवान को दान कर देना चाहिए।आशा करता हूं दोस्तों आपको यह लेख पसंद आया होगा। आपको यह लेख कैसा लगा नीचे कमेंट कर जरूर बताएं और ऐसे ही पोस्ट पढ़ने के लिए हमारे ब्लॉग को फ्री में ईमेल सब्सक्राइब जरूर करें जिससे आपको नई पोस्ट आपके ईमेल पर प्राप्त हो सके । इस पोस्ट को शेयर जरुर करे धन्यवाद।
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