कामवासना और प्रेम में अंतर
इस संसार में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से मृदुल नाता जोड़ने वाला जो मनोभाव है, उसी का नाम ' प्रेम ' है । जैसे पृथ्वी का गुरुत्व आकर्षण चीजों को अपनी ओर आकर्षित करता है , वैसे ही एक व्यक्ति में दूसरे के प्रति जो आकर्षण होता है , उसी को प्रेम कहा जाता है ।
प्रेम एक ऐसी मनोस्थिति है अथवा एक ऐसा अनुभव है जो आनन्द के अति निकट है , नहीं , नहीं , प्रेम तो आनन्द का सहगामी ही है अथवा आनन्द का उत्पादक ही है । यदि संसार में प्रेम न हो तो मनुष्य का जीना ही मुश्किल हो जायेगा क्योंकि तब मनुष्य किसलिए जीए , किसके साथ जीए ? अत : प्रेम जीवन को स्थिर रखने वाला , जीवन का सार है अथवा मनुष्य के मन को भाने वाला एक रस है ।
प्रेम ही का विरोधी मनोभाव घृणा है । घृणा से अनेकानेक अशान्तकारी तथा दुखोत्पादक संकल्प विकल्प और विचार उत्पन्न होते हैं परन्तु प्रेम से मनुष्य के मन में एक - दूसरे के कल्याण की भावना पैदा होती है ।
प्रेम मनुष्य को दूसरे के लिए अपने सुख को त्यागने में भी सुख की अनुभूति करता है जबकि घृणा से मनुष्य के मन को एक दाह का अनुभव होता है और वह दूसरे के सम्बन्ध अथवा सम्पर्क को ही त्याग देना चाहता है ।
अत : प्रेम एक स्वाभाविक , आवश्यक और सात्विक गुण है । परमात्मा के प्रति मन में प्रेम का होना ही भक्ति तथा योग है । परमात्मा के प्रेम की एक बूंद प्राप्त करने के लिए भी प्रभु - प्रेमी व्यक्ति अपने जीवन की बाजी लगाने को तैयार हो जाता है । प्रेम एक बहुत ही उच्च , बहुत ही पवित्र गुण अथवा अनुभूति है ।
परन्तु मनुष्य गलती से इसके विकृत रूप को भी प्रेम मान बैठता है । वह मोह , काम और लोभ को भी प्रेम समझ बैठता है । अत : वह इनकी दललद में फंसकर जीवन को दुखी बना बैठता है ।
प्रेम और विकार में अन्तर
- यदि ध्यान से देखा जाये तो प्रेम और काम में या प्रेम और मोह में बहुत अन्तर है । प्रेम दूसरे के प्रति त्याग की भावना पैदा करता है जबकि ' काम ' में मनुष्य का स्वार्थ होता है ।
- यदि कामी व्यक्ति की वासना - तृप्ति के प्रस्ताव को स्वीकार न किया जाये तो वह तुरन्त ही क्रोधावेश में आ जाता है और घृणा ही की अभिव्यक्ति करता है ।
- कामी व्यक्ति पत्नी के जीवन को अपने हाथ में एक खिलौना मानता है जिससे कि उसका अपना मनोबहलाव पूरा होना चाहिए , उसमें खिलौने की भावनाओं का अस्तित्व नहीं रहता ।
- कामी व्यक्ति छोटी - छोटी बात पर भी अपनी पत्नी को झाड़ और फटकार देता है । वह उस पर हाथ उठाने को भी तैयार हो जाता है और घर से निकल जाने की फरमाइश करने में भी देर नहीं लगाता ।
- वह उसे अपने बराबर या अपने से भी ऊँचा जीवन - साथी नहीं मानता बल्कि पत्नी के जीवन को अपनी दया ही पर अधिक समझता है । यदि पत्नी का स्वास्थ्य ठीक न हो अथवा वह कमजोर हो अथवा वासना - भोग की उसे इच्छा न हो तो न सही , पति को यदि वासना - तृप्ति करनी है तो उसकी कामना पूरी होनी चाहिए ; उसके लिए गृहस्थ का यही मुख्य प्रयोजन है ।
इस प्रकार , स्पष्ट है कि ' काम ' भाव एक दानवी वृत्ति है , यह आसुरी स्वभाव की अभिव्यक्ति है , यह एक मनोविकार है । यह एक तुच्छ अथवा उच्छृखल मनोवृत्ति है । इसका जन्म मन की चंचलता से होता है ।
यह घास की आग की तरह पैदा होता है और फिर बुझ जाता है और फिर घास की आग की भाँति जल्दी ही जग जाता है । यह अपने तथा दूसरे के जीवन को ह्रास की ओर ले जाने वाला , एक - दूसरे को गर्त में गिराने वाला , आत्म - ग्लानि के भाव को पैदा करने वाला है ।
यह कुत्सित संकल्प है । यदि यह पवित्र अथवा उत्तम भाव हो तो मनुष्य इसकी पूर्णाभिव्यक्ति के लिए एकान्त और अन्धेरे का स्थान क्यों ढूँढता है ? वह इसे छिप कर क्यों करता है ? क्या माता अपने बच्चों से या भाई अपने भाई से छिप कर प्यार करता है ? क्या उसकी चर्चा होने पर वह कभी लज्जा का अनुभव करता है ?
अन्य किसी भी प्रकार के प्यार की अभिव्यक्ति का उल्लेख ' काला मुँह करना ' - इस प्रकार के निन्दित शब्दों या मुहावरों से नहीं किया जाता । अन्य किसी भी प्रकार के प्रेम के व्यापक रूप को ' व्यभिचार ' की संज्ञा नहीं दी जाती । अन्य प्रकार के प्यार की अभिव्यक्ति यदि एक व्यक्ति करना है और दूसरा नहीं करता तो उसे बलात्कार नहीं कहा जाता । भाई अपने भाई को अथवा माता अपने पुत्र को जब प्रेम की दृष्टि से देखती है तो उसकी दृष्टि को भी ‘ पापमय दृष्टि ' नहीं कहा जाता है ।
काम और प्रेम में रात - दिन का अन्तर
अत : यह स्पष्ट प्रकार से मालूम होना चाहिए कि काम और प्रेम में रात - दिन का अन्तर है । काम एक प्रकार की इन्द्रियलोलुपता , चंचलता अथवा चित्त की विक्षिप्तता है जबकि प्रेम मन में दूसरे के प्रति अपनेपन का शुद्ध भाव है ।
प्रेम जितना व्यापक होता है , उतना दिव्य और शुद्ध होता है , उतना ही वह मनुष्य को महान बनाता है , काम जितना व्यापक होता है उतना ही व्यभिचार का रूप लेता है और मनुष्य को चरित्रहीन तथा लम्पट बनाता है । प्रेम का उद्रेक मन के मैल को धोता है जबकि काम मनुष्य के मन को और अधिक मैला तथा संकुचित बनाता है ।
प्रेम दूसरे के गुणों , विचारों और कर्त्तव्यों के कारण भी हो सकता है और अपने मन की महानता के कारण भी । परन्तु ' काम ' दूसरे के शारीरिक नाम - रूप पर आधारित होता है । जैसे - जैसे जवानी का उभार कम होता है और दूसरे के रूप - लावण्य की कलाएँ घटने लगती हैं , वैसे ' काम ' भाव भी वहाँ से हटने लगता है ।
प्रेम का सम्बन्ध शारीरिक आयु , अवस्था या रूप - लावण्य से नहीं है । ' कामी ' व्यक्ति की वृत्ति यदि अपनी पत्नी से हटकर कहीं और भटकती है , तो उसका अपना मन भी उसे अपराधी मानता है जबकि प्रेम करने वाला व्यक्ति निर्भय होता है और उसमें अपने प्रति यह भावना नहीं होती कि वह कोई पाप कर रहा है ।
काम की भाषा हिंसात्मक
' काम ' को प्रेम मानने वाले व्यक्ति स्वयं ही कहते हैं कि ' आपने मुझे कसकर प्रेम का तीर मारा है अथवा आपकी बी - जैसी दृष्टि से मैं घायल हो गया हूँ ' अथवा ' मैं आपके प्रेम - पाश का कैदी बन गया हूँ ' या ' आपकी निगाह ने तो मुझ पर जुल्म ढा दिया है ' या आपकी सूरत ने तो मुझ पर बिजली गिरा दी है ' इत्यादि ।
प्रेम की भाषा ऐसी हिंसात्मक शब्दों से नहीं बनी है । प्रेम मनुष्य के मन में एक तूफान या आंधी पैदा नहीं करता , उसे अनियंत्रित नहीं बनाता , उसके मन को उलझाता नहीं , उसे मानसिक ग्रंथियाँ नहीं देता बल्कि उसके स्वरूप को विकसित करता है , उसके चेहरे पर स्थायी हर्ष लाता है ।
काम स्वार्थ पर एक ओढ़नी है
प्रेम का अस्तित्व दूसरे के शोषण के लिए नहीं होता । ' काम ' जहाँ होता है , वह दूसरे के रक्त को चूसने के लिए उकसाता और फिर उसके बाद वह वहाँ से उठ जाता है । प्रेम हँस है तो ' काम ' नाली का कीड़ा है । प्रेम एक सद्परिचय है परन्तु ‘ काम ’ स्वार्थ पर एक ओढ़नी है ।
कामी व्यक्ति रट तो यही लगाता है कि ' मुझे तुम से प्रेम है ' परन्तु उसके इन शब्दों के पीछे दूसरे के रूप लावण्य को लूटने ही का भाव छिपा होता है । कामी भी मुस्कराता है परन्तु उसकी मुस्कराहट को त्योरियों में बदलते देर नहीं लगती । ' काम ' प्रेम नहीं है सच्चे प्रेम का आधार आत्मियता है और आत्मियता का आधार स्वयं को ' आत्मा ' मानना है ।
अत : शुद्ध प्रेम देह की आयु , अवस्था , लिंग - भेद या रंग रूप पर नहीं टिका होता । यह हदों में नहीं बँटा होता । उसका प्रेरक भाव ' हरेक के कल्याण की कामना ' ही है । अत : हमें यह जानना चाहिए कि ' काम ' को ' प्रेम ' कहना प्रेम को कलंकित करना है ।
प्रेम को ' नरक का द्वार ' नहीं कहा गया , काम ही को ‘ महाशत्रु ' और ' नरक का द्वार ' कहा गया है । प्रेम ही के कारण तो स्वर्ग सही अर्थ में स्वर्ग है । ' काम ' को ' कटारी ' कहा गया है , प्रेम तो जीवनदायक है ।
अत : जो लोग ' काम ' को प्रेम मानकर अपने जीवन का सर्वनाश करने में लगे हुए हैं , उन्हें सचेत होना चाहिए । उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि गृहस्थ जीवन में भी पत्नी की स्वीकृति या इच्छा के बिना काम - भोग बलात्कार ही है । जो मनुष्य इन्द्रिय - नियन्त्रण में अयोग्य है , उसे व्यापक व्यभिचार से बचाने का एक निकृष्ट उपाय है गृहस्थ में काम भोग ।
यह बड़े पाप से बचाने के लिए छोटे पाप के लिए स्वीकृति है । परन्तु जो इसे ' धर्म ' या ' प्रेम ' मान लेता है , वह स्वयं को धोखा देता है । वह प्रभु के प्यार से हटकर हाड़ - माँस के आकर्षण में बँध जाता है ।
वह योगी के बजाय भोगी बन जाता है । वह अपने आत्मिक विकास के द्वार बन्द कर देता है । वह समूचे समाज से सच्चा प्यार करने में अयोग्य सिद्ध होता है । उसका प्यार अपनी पत्नी की देह तथा अपने पुत्रों की आवश्यकता की पूर्ति तथा अपने घर की चार दीवारी तक सीमित हो जाती है ।
वह समाज के लिए अपने जीवन को नहीं दे सकता क्योंकि वह अपना जीवन इन्हीं को दे देता है । उसकी शारीरिक शक्ति , आर्थिक सामर्थ्य , बौद्धिक क्षमता सब कुछ काम को केन्द्र बनाकर बनाई गई गृहस्थी में ही लग जाते हैं ।
सच्चे सुख की आशा में वह मकड़ी की तरह गृहस्थी का जाल बनाता है , फिर उसी में ही स्वयं फँसकर लटक जाता है । अपना सर्वस्व लुटा चुकने के बाद जब उसे होश आता है , तब देर हो चुकी होती है ; तब हाथ मसलने के सिवा कुछ नहीं हो सकता ।
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